Friday, July 23, 2021

धर्म एवं लोकसंचार

लोकसंचार परम्परागत माध्यम के रूप में एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण अंग हैं। लोक संचार की उत्पति लोकसंस्कृति से हुई है । धर्म को लोकसंचार के परिपक्ष्य में देखा जाये तो यह किसी भी स्थान की संस्कृति और परम्परा को समृद्ध करने के साथ सूचनाओं के प्रसार और हमारे ग्रामीण लोगों को शिक्षित करने का मुख्य औजार हैं । एडमंड ऐरिन (२०११) ने अपनी पुस्तक  में  कहा है की धर्म एवम संचार एक दूसरे से सम्बंधित हैं। धर्म संचार की विभिन्न आयामों
, जनसंचार , लोकसंचार इत्यादि का पूर्ण उपयोग करता है।  जिसका उद्द्शेय वास्तविकता या असलियत का प्रकट करना, प्रार्थँना और उपदेश , पूजा , पवित्र ग्रंथों को पढ़ना और सुनना, अमृतवाणी का गायन ,प्रवचन अनुष्ठान करना है।  लोक संचार में धार्मिक संचार प्रक्रियाएँ भी सम्मलित है।  धर्म एवम लोक संचार समाज में दो महत्वपूर्ण और अनिवार्य संस्थाएं है।  यूनेस्को ने धर्म , धार्मिक प्रवचन को लोकसंचार  की मान्यता दी है। भारत के इतिहास में धर्म को लोक संचार के रूप में राजनितिक और सामाजिक चेतना प्रदान करने के लिए मीडिया के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है । लोक संचार किसी भी स्थान की संस्कृति का सच्चा प्रतिनिधत्व है।अपने धर्म , क्षेत्र ,जाति,पंथ और भाषा के आधार पर लोगो की अपनी संस्कृति होती है। जिसमे रीतीरिवाज , त्योहार और उत्सव सम्मिलत होते हैं, जिन्हे संचार प्रणाली के विभिन्न माध्यंमों, विधियों से जोड़ा जाता है। इसे पारम्परिक लोकसंचार का नाम दिया गया है। इसे नृत्य, संगीत , कविता , कहानी के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। हर क्षेत्र , राज्य, स्थान की अपनी अनूठी लोकगाथाएँ होती हैं । जो की अपने आप में अनूठी और एक विशिष्ट स्वरूप लिए हुए हैं।लोकसंचार में जीवन की सवेंदंनाएं सम्म्लित होती हैं।लोकसंचार को इस परिभाषा से भी परिभाषित किया जा सकता है की यह ऎसा सम्प्रेषण है जहाँ अनेक व्यक्ति एक व्यक्ति से सन्देश प्राप्त करते हैं।  बलवंत गड़गी ९१९९१) ने लोक संचार की प्रसंगिकता में वर्णित किया है की लोक संचार, पोराणिक नायक , मध्ययुगीन रोमांस , शिष्ट कथाऐ  ,सामाजिक रीति रिवाज़ , आस्था व् किवदंतियों का एक समृद्ध भंडार है। लोक संचार प्राकृतिक आवास  (नेचुरल हैबिटैट ) ,संगीत , नृत्य, उपसंहार , छंद , महाकाव्ये , दिव्ये वाणी , धरम और व्रत , त्योहार आदि तत्वों की सौजन्य से बनाई गई सम्प्रेषण कला है। जटिल जातीय और धार्मिक विन्यास की चलते  हुए लोकसंचार और नैतिक पत्रकारिता की माध्यम से जातीय और धार्मिक दोनों मोर्चों पर विविधता में एकता को बढ़ावा देने में धर्म एवम लोकसंचार की महत्वपूर्ण भूमिका है।
(प्रो, वंदना पूनिया, अधिष्ठाता-शिक्षा संकाय, मानव संसाधन विकास केंद्र, गुरु जंभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, हिसार।
(बिजेंदर दहिया, शोधार्थी, गुरु जंभेश्वर जी महाराज धार्मिक अध्ययन संकाय, गुरु जंभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, हिसार।)

Thursday, June 24, 2021

हरियाणवी लोकगीतो में धर्म,अध्यात्म एवं पर्यावरण : एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का रूप ।



हरियाणवी लोकगीतों में धर्म अध्यात्म एवं पर्यावरण ही लोकमानस की सबसे अधिक निश्चल अभिव्यक्ति है जिसमें प्रदेश की सांस्कृतिक विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। हरियाणा का लोक साहित्य अत्यंत समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का रूप है तभी तो, हरियाणा एक प्रदेश का नहीं अपितु संस्कृति का नाम है। इस प्रदेश की विरासत में सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण को लेकर जिन लोकगीतों की रचना हुई है, इनमें लोक आस्था की बहुमूल्य निधि समाहित है। हरियाणवी लोक गीतों में दार्शनिक ऊहापोह से संबंधित प्रश्नों को धर्म, अध्यात्म एवं पर्यावरण संरक्षण के अंतर्गत गिना जाता है। यह न केवल मानव में अपितु पशु पक्षियों में भी प्रसन्नता उत्पन्न कर देती है। पेड़ पौधे भी फूलों फलों से लबालब हो जाते हैं। प्रस्तुत लोकगीत में दर्शाया है कि-

 “मेरी पिंग तलै लाडा मोर, रै बीरा वारी वारी जाऊं

मैं तो लाऊंगी मेरे बीरै कै हाथ, रै

इन्हीं के आविर्भाव से हरियाणवी संस्कृति , अंतर्मुखी, गंभीर और मूल्यवान बनती चली गई। भक्ति आंदोलन से ओतप्रोत संतों एवं भक्तों तथा उनके पूर्ववर्ती सिद्ध-नाथो के गीत भजनों पर भी लोकगीतों की अमित छाप रही हैं। गोरखनाथ और कबीर जैसे हठयोगी साधक एवं तत्व चिंतन भी लोकगीतों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके, तभी हरियाणा में पाए जाने वाले बड़, पीपल , नीम इत्यादि फलदार पेड़ों को पर्यावरण के साथ धार्मिक आस्था की दृष्टि से महत्व प्राप्त है। यही कारण रहा है कि विश्व संस्कृतियों की तुलना में हरियाणा की पहचान धर्म, अध्यात्म और पर्यावरण में निहित है। युगों से जनता के मनोभावों को ईश्वर के निराकार, अगम, अगोचर रूप से परिचित कराते आए हैं।

    कित रम गया जोगी मंढी सुन्नी, जोगी करै, जोगी करें मंढी की रक्षा,मांग खुवावै उसने            भिक्षा कूण करेगा वा की परिकक्षा, जल गी लकड़ी भुजगी धूणी, कित--

 लोकगीतों का अनूठा संसार अपने अंतर्मन में ग्रामीण जीवन को दर्शाता है, जनमानस का दिल से गाया हुआ गीतों का हार परंपराओं तथा जीवन शैली रूपी मनको से अलंकृत है। यह सदियों से चलता आ रहा है और सदियों तक चलायमान रहेगा क्योंकि इसी से प्रेम, करुणा, अहिंसा, जीव दया, मैत्री आदि गुणों का विकास तेजी से होता है। अतःकहा जा सकता है कि हरियाणवी लोकगीत धर्म, अध्यात्म एवं पर्यावरण का समृद्ध सांस्कृतिक रूप रहे हैं।

(प्रो, वंदना पूनिया, अधिष्ठाता-शिक्षा संकाय, मानव संसाधन विकास केंद्र, गुरु जंभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, हिसार।

(शोधार्थी, तारा देवी, गुरु जंभेश्वर जी महाराज धार्मिक अध्ययन संकाय, गुरु जंभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, हिसार।)